एक आदमी सुख को पकड़ने के लिये उसके पीछे दौड़ा । सुख भागकर राजा के महल मे घुस गया ।आदमी उसके पीछे राजमहल मे पहुचॉ ,तो सुख राजमहल की खिड़की मे से निकलकर नीचे आ पहुचॉ। वह आदमी भी उसके पीछे कूद पड़ा ,तब तक सुख राजा के उद्यान मे चला गया ।
आदमी भी उसे कब छोड़ने वाला था । वह उद्यान की और लपका । इतने मे सुख वहॉ से भी निकलकर जंगल मे भाग गया । आदमी ने उसका पीछा किया । अंत मे आदमी जब बुरी तरह थक गया और सुख हाथ ना आया , तब निराश होकर वह एक पेड की छाया मे बैठ गया । उसे भूख लगी तो खाने के लिये रोटी निकाली व खाने लगा । उसी समय एक भिखारी आया ,भूख से व्याकुल और थका हुआ । भिखारी ने कहा प्यारे तु सुखी प्राणी है । मै तो भूख से मर रहा हूँ। मुझे भी कुछ खाने को दे और सुखी कर ।
आदमी सोचने लगा यह भिखारी क्या कह रहा है ? मै सुखी हूँ ?क्या दूसरे को सुखी बनाने मे ही सच्चा सुख है ?
सुख के पीछे मारा मारा फिरने वाला मनुष्य सुख का स्वरूप समझा और वह सचमुच सुखी हो गया ।
सुख की अनुभूति मन से जुडी हुई है ।यह तो अपने भीतर गहराई में खोद कर ढूंढ निकालने की चीज़ है। यह प्यास बुझाने के लिए एक कुएं को खोदने जैसी है।
सुख पाने के लिये इधर उधर भटकने की कही भी जरूरत है यह हमारे भीतर यानि आत्मा के अंदर ही रहता है वही खोजने की जरूरत है इसको शब्दो से नही वरन अनुभव से महसूस कर सकते है
हम जैसा चाहते है वैसा नियती हमे देती नही है । तब फिर निराश होने की बजाय क्यों न जो नियती व प्रकृति के फैसले को स्वीकार करके सुख को महसूस करे ।
आपकी आभारी विमला मेहता
जय सच्चिदानंद 🙏🙏
कर्म तो कर्मभूमि नाम है जग का करना ही पड़ता है परंतु सही कहा सुख के पीछे कितना भी भागें पास में सुख है वह भी साथ छोड देगा।क्यं न हम पास में सुख है उसका भोग करें—-बहुत खूब।
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आप सही कह रहे कर्म भूमी है तो कर्म करना पड़ता है । मै भी इस बात से सहमत हूँ लेकिन पूरी मेहनत से अपना कर्म करते हुये यदि हमे उसमे कम ,ज्यादा या बिल्कुल भी सफलता नही मिलती है तो उसके पीछे और दौड़ लगाना या दुख मनाना ,उसकी बजाय नियती मानकर अपने आप को संतुष्ट कर लेना चाहिये।इससे हमारा मन दुखी नही होगा और दूसरा कार्य करने की सोच सकेंगे । मन ही सुख दुख का कारण है । गरीब इंसान भी सुखी हो सकता है ,अमीर इंसान भी दुखी हो सकता है ।
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